बढ़ती नवजात व शिशु मृत्यु दर, महिलाओं में घटती प्रजनन दर और बढ़ता कुपोषण भारत के युवा राष्ट्र पर कहर बरपा सकता है।
राजेश खण्डेलवाल द्वारा
दुनिया में जापान को बुजुर्ग देश कहा जाता है तो भारत युवा राष्ट्र कहलाता है। बढ़ती नवजात व शिशु मृत्यु दर, महिलाओं में घटती प्रजनन दर और बढ़ता कुपोषण भारत के युवा राष्ट्र पर कहर बरपा सकता है। अगर देश में हालात ऐसे ही बने रहे तो भविष्य में काम वाले हाथ (वर्किंग हैण्ड) कम पड़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। यह परिस्थिति गंभीर चिंता का विषय का है और इस पर समय रहते चिंतन करने के साथ ही सार्थक कदम उठाने की आवश्यकता है।
सर्वाधिक बच्चे वर्ष 2003 में पैदा हुए
अध्ययन एवं रिपोर्टों के मुताबिक देश में सर्वाधिक बच्चे वर्ष 2003 में पैदा हुए। इससे पहले और बाद में अभी तक इतनी संख्या में बच्चे पैदा नहीं हुए। वर्ष 2021 में देश में जीवित बच्चों की संख्या करीब 7 लाख कम रही। इस तरह वर्ष 2003 के मुकाबले वर्ष 2021 में पैदा हुए बच्चों की संख्या प्रतिदिन करीब 19 सौ कम रही। वहीं वर्ष 2005 में महिलाओं की प्रजनन दर 3 से कुछ कम रही, जो वर्ष 2019 में 2 बच्चों पर आ गई, जो विश्व के ऐवरेज से कम है। इस तरह करीब डेढ़ दशक में महिलाओं में प्रजनन दर करीब 50 फीसदी तक गिरी।
महिलाओं में प्रजनन क्षमता प्रभावित हुई
यूं तो देश में कम होती बच्चों की संख्या के विविध कारण हैं पर घरेलू निर्णयों में महिलाओं की भागेदारी 37 प्रतिशत से बढ़कर 89 होने से बढ़े जिम्मेदारी के भार ने महिलाओं में बच्चा जनने के प्रति रुझान कम किया है। इनके अलावा युवक-युवतियों की बैवाहिक उम्र का बढऩा और कॅरियर की चिंता में समय रहते बच्चा पैदा करने से परहेज भी एक बड़ा कारण है। हम दो, हमारे दो की अवधारणा के बाद अब बच्चा एक ही अच्छा ने भी कोढ़ में खाज का काम किया है, जिससे चाचा, ताऊ, फूफा, मौसी, चाची, भुआ, ताई जैसे सामाजिक रिश्ते गौण होते जा रहे हैं। भ्रुण हत्या भी कम अभिशाप नहीं है, जिसकी रोकथाम के लिए और काम करने की जरूरत है। देश में ऐसे हालात ग्रामीण क्षेत्र की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में ज्यादा बदतर हैं।
खराब नवजात मृत्यु दर
देश में जन्मे एक हजार में से 20 नवजात काल के ग्रास बन जाते हैं तो एक हजार में से 30 शिशु मौत के शिकार हो जाते हैं। मरने वाले नवजातों में से करीब 40 फीसदी नवजात प्रसव के दौरान या फिर जन्म के बाद 24 घंटे में मृत्यु के शिकार बन जाते हैं। इनमें भी यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान की स्थिति ज्यादा खराब है, जहां यह आंकड़ा 35 तक पहुंच जाता है, जो देश में नवजात मृत्यु दर का 55 फीसदी है।
जन्म के समय श्वांस में अवरोध से अकाल मृत्यु
देश में मरने वाले नवजातों में से 20 फीसदी नवजातों की मृत्यु का कारण जन्म के समय श्वांस में अवरोध होता है। एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 61.1 फीसदी बच्चों की मौत जन्म के 48 घंटे में श्वांस अवरोध के कारण हो जाती है। इसका मूल कारण श्वांस में अवरोध के पहले मिनट में तत्काल प्रभावी इंतजामों का अभाव है।
हालांकि लैबर रूम में बैग और मास्क होते हैं, लेकिन कई बार वे फैंफड़ों के फटने का कारण बन जाते हैं। दूसरा कारण यह भी माना जाता है कि बच्चे को लैबर रूम से यूनिट तक पहुंचाने में समय लग जाता है या फिर वहां भी कुशल कर्मचारी के अभाव जैसी समस्या बनी रहती है। ग्रामीण अंचल में तो ऐसी सुविधाएं ही नहीं होती और अंयत्र ले जाने में समय लगने से इस अवधि में बच्चा प्राण त्याग देता है।
किशोरियां खून की कमी के कारण कुपोषण की गिरफ्त
देश में आधी से अधिक किशोरियां खून की कमी के कारण कुपोषण की गिरफ्त में हैं। ऐसे ही कारणों से जीवित बच्चों में से करीब एक तिहाई बच्चे भी कुपोषण की चपेट में आ जाते हैं। इससे उनका मानसिक विकास ही नहीं रुकता, बल्कि कुछ औसत वजन में कम (पतले) तो कुछ ज्यादा (मोटे) रह जाते हैं। वहीं कुछ हाईट (लम्बाई) में कम रह जाते हैं तो कुछ ज्यादा लम्बे हो जाते हैं। हालत ऐसे ही रहे तो आने वाले समय में कुपोषित यानि नाटे, पतले और मोटे बच्चों की संख्या बढ़कर दो तिहाई हो जाएगी।
देश में किशोरियों के साथ ही अन्य महिलाओं में रक्त की कमी के कारण होने वाले कुपोषण को रोकने की महत्ती आवश्यकता है तो पैदा होने वाले बच्चों को सुरक्षित बचाना बड़ी चुनौती है।
क्या है युवा राष्ट्र के लिए बड़ा खतरा
ऐसा कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि देश में बढ़ती शिक्षा व शहरीकरण के कारण एक तरफ महिलाओं में कम बच्चों को जन्म देने की प्रवृति बढ़ी है तो दूसरी तरफ पैदा होने वाले बच्चों में से कुपोषण के कारण स्वस्थ बच्चों की संख्या में कमी आ रही है। इससे देश में युवाओं की संख्या कम पड़ने का अंदेशा है, जो युवा राष्ट्र के लिए बड़ा खतरा हो सकता है। इससे निपटने के लिए फिलहाल पैदा हो रहे बच्चों को बचाना और जीवित बच्चों का स्वस्थ व शिक्षित होना समय की दरकार है।
नवजातों को बचाने में नियोनेटल रेसपिरेटर मशीन तो जीवित बच्चों को स्वथ्य बनाए रखने के लिए पोषण वाटिका और किचन गार्डन मील का पत्थर साबित हो सकते हैं। इनके लाइफ स्टाइल में बदलाव लाना और रक्त अल्पता से जूझती किशोरियों व महिलाओं को उचित पोषणयुक्त खाद्य सामग्री देना भी जरूरी है।
यह है भरतपुर की कहानी
नवजात व शिशुओं की मृत्यु दर को कम करने के लिए लुपिन फाउन्डेशन ने प्रयोग के तौर पर राजस्थान के भरतपुर जिले में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (पीएचसी) व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों (सीएचसी) पर नियोनेटल रेसपिरेटर मशीन (नवजात श्वांसतंत्र मशीन) लगाई। इस मशीन के माध्यम से जिले के प्रत्येक पीएचसी व सीएचसी पर एक वर्ष में औसतन 300 नवजातों को सुरक्षित बचा लिया। इस तरह भरतपुर जिले में करीब 16 हजार नवजातों को बचाया जा चुका है। महाराष्ट्र के धूले में एप्रोटेक और एसबीएचजीएमसी ने भी अपने अध्ययन में ऐसा माना है। वहां मात्र 45 दिनों में ही 1000 जन्में बच्चों में से नवजातों की मृत्यु का आंकड़ा मात्र 7 रह गया।
ऐसी मशीन अगर पूरे देश के स्वास्थ्य केन्द्रों पर लगाईं जाएं तो नवजातों को बचाने की भारत सरकार की मंशा भी कारगर साबित हो सकती है। इसी मशीन के कारण नवजातों को बचाने में भरतपुर देश का पहला जिला बना है। इस मशीन की विशेषता यह है कि यह भारत में बनी है। यह मजबूत डिवाइस होने के साथ ही प्रसव स्थल पर इसे रखा जा सकता है। इसके लिए किसी बुनियादी ढांचे की आवश्यकता नहीं है। अकुशल पैरा मेडिकल स्टॉफ न्यूनतम प्रशिक्षण से ही इस मशीन का उपयोग कर सकता है।
क्या कहते हैं प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता सीता राम गुप्ता
लुपिन फाउन्डेशन के तत्कालीन अधिशासी निदेशक रहे और फिलहाल समृद्ध भारत अभियान के राष्ट्रीय संयोजक सीताराम गुप्ता कहते हैं कि आने वाले समय में देश की इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए सरकार को लड़ाई लडऩी होगी, जिसमें जन-जन का सहयोग जरूरी है। इसके लिए हर आंगनबाड़ी केन्द्र पर पोषण वाटिका लगाई जाए। साथ ही आंगनबाड़ी केन्द्र पर आने वाले हर बच्चे के घर पर किचन गार्डन विकसित हों।
कुपोषण पर विशेष अभियान चाहिए
इनकी जिम्मेदारी आंगनबाड़ी केन्द्र पर कार्यरत महिलाओं को सौंपी जाए, जो केन्द्र के निर्धारित समय के बाद किचन गार्डन की सार-संभाल करें और इसके लिए उन्हें इन्सेंटिव देकर प्रोत्साहित किया जा सकता है। इस तरह से कुपोषण के शिकार बच्चों को आंगनबाड़ी केन्द्र और उसके बाद घर पर भी पोषणयुक्त खाद्य सामग्री सहज सुलभ हो सकेगी। इतना ही नहीं, देश में कुपोषण पर नियंत्रण पाने के लिए इसे पल्स पोलियो से मुक्ति की भांति अभियान बनाकर चलाया जाए, जिसमें जन-जन की सहभागिता हो। इसके लिए आर्थिक रूप से सक्षम लोग अपना जन्मदिन आंगनबाड़ी केन्द्रों पर पहुंचकर कुपोषित बच्चों के बीच मनाएं और उन्हें पोषित फल या खाद्य सामग्री वितरित करें तो काफी हद तक कुपोषण की रोकथाम में मदद होगी। कुपोषित बच्चों के लाइफ स्टाइल भी पर ध्यान केन्द्रित करना जरूरी है। इसके लिए उन्हें फास्ट फूड़ खाने से रोकने और फिटनेस के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए।
कुपोषण से बचाइए
बिडम्बना यह भी है कि भारत में मानव जीवन की उम्र बढ़ी है, जिससे बुजुर्गों की संख्या बढ़ेगी तो जीवित बच्चों को कुपोषण से बचाना है। अन्यथा दोनों ही स्थितियों में देश में निर्भर लोगों की संख्या और काम करने वाले हाथों की संख्या का अनुपात बिगडऩे से रोकना मुश्किल होगा, जो आजादी के सौ साल पूरे करने के बाद किसी खतरे से कम नहीं होगा।
(लेखक के बारे मेंः राजेश खण्डेलवाल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(यहाँ व्यक्त विचार लेखक के हैं)